What Is Tantra Vidya

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तत्र का व्यावहारिक पक्ष विविध प्रकार के सांसारिक परिवर्तन और चमत्कारों के साधन रहे हैं। यह अलग बात है कि इसके गहरे रहस्यों को सरलतापूर्वक नहीं जाना जा सकता। इसके लिए किसी योग्य गुरु की शरण में जाना पड़ता है। गुरु की कृपा से ही तंत्र के गोपनीय पक्षों का ज्ञान होता है। तंत्र में यंत्र और मंत्र दोनों का संयोग रहता है। तंत्र की विभिन्न क्रियाओं को साधारण बुद्धिगम्यता द्वारा भी जाना जा सकता है। यह शब्द की प्रकृति पर निर्भर करता है। प्रत्येक शब्द का अपना एक आकार, गति और प्रभाव होता है। ये किसी न किसी स्थिति के प्रतीक होते हैं। तंत्र के अनुसार स्थूल संसार शब्द ब्रह्म की अभिव्यक्ति है।’ शब्द ‘ और ‘ लय ‘ में काफी गहरा संबंध है। बिना लय के शब्द शक्ति विहीन होता है और केवल शब्द ही रह जाता है। लय से ही शब्द में शक्ति आती है और वह शक्ति जिसके लिए शब्द होता है, इससे आकर्षित होती है। यदि भजन के शब्दों को साधारणत: उच्चारण करें तो श्रोता पर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन यदि उसी भजन को अच्छा गायक लय के साथ गाए तो आप मंत्रमुग्ध हो जाएंगे अर्थात शब्दों में लय होने से उनमें शक्ति का संचार हुआ और आप मुग्ध हो गए। जिस प्रकार किसी व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हम ‘ नाम ‘ का उच्चारण करते हैं, उसी’ प्रकार पशु-पक्षी का ध्यान आकर्षित करने के लिए अलग- अलग शब्द ध्वनियों का उपयोग होता रहा है।

तांत्रिक विद्या क्या है (तंत्र विद्या क्या है)

तंत्र शक्ति से सिद्ध होने वाले प्रयोगों के लिए मन, कर्म और विचार का शुद्ध रहना आवश्यक है। साधारण स्थिति में यह क्रिया-प्रक्रिया में उलझा रहता है। सत्य, ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा व्यक्ति का अंतःकरण पवित्र किया जाता है। तंत्र के पालन के लिए सबसे पहले आहार-शुद्धि पर बल दिया जाता है। आहार-शुद्धि से विचार-शुद्धि, विचार-शुद्धि से क्रिया-शुद्धि तथा क्रिया-शुद्धि से मन-शुद्धि होती है। शुद्ध मन और पवित्र अंतःकरण से ही विभिन्न प्रकार की चमत्कारिक क्रियाएं

उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति में किया जाने वाला प्रयोग सफल रहता है। तंत्र का प्रयोग शुद्ध मन के सहयोग से तुरंत सिद्ध हो जाता है।
जब इस शरीर को साधना की भट्टी में तपाया जाता है तो अपने भीतर अदृश्य आत्मा का स्पंदन अनुभव होने लगता है। साधने पर शारीरिक, मानसिक और प्राणिक अशुद्धियां भस्म हो जाती हैं फिर शुद्ध आत्मा स्वयं को प्रकट करता है। मानव शरीर में जन्म-जन्मांतरों की अनेक अशुद्धियां (विकार) भरी हुई हैं। इन अशुद्धियों की मोटी परत ने हमारी आत्मा को पूरी तरह ढक लिया है। जब हम साधना के द्वारा इस परत को हटाते हैं या इसमें छिपी गंदगी का शोधन होता है तो शुद्ध आत्मा अपने मूल रूप में प्रकट होता है।

सत्य बोलने का व्रत लेने वाला साधक जब किसी मंत्र का प्रयोग करता है तब उसकी शक्ति और बल उसके मुख से निकले वाक्य को सत्य बनाते हैं। शब्द- भूमि और भाव- भूमि केवल शब्द एवं अर्थ के रूप में ही भिन्न होता है। हमारा मन अपनी सीमा में आए किसी व्यक्ति विशेष के लिए प्रेषित विचार तरंगों को न केवल पकड़ता है बल्कि उनका संप्रेषण भी करता है। मन की यह शक्ति धीरे- धीरे वाणी में उतरने लगती है जो समाज को भी प्रभावित करती है। इंद्रियों के नियंत्रित हो जाने तथा मन की विलक्षण शक्ति की प्रतीति होने पर साधक अपने अभीष्ट कार्यों में सफल होने लगता है। तंत्र भी मन को निर्मल और शक्ति संपन्न करके अंतर्मुखी करने की एक विधा है। तंत्र साधना के प्रत्येक स्तर पर चमत्कार और भौतिक सिद्धियां प्राप्त होती हैं। अब यह साधक की स्थिति पर निर्भर करता है कि वह तंत्र का वास्तविक लक्ष्य तथा सिद्धि कैसे प्राप्त करे।

जब से सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ है तब से मनुष्य ने शक्ति की साधना निरंतर की है और आज भी यह विश्व में अनवरत चली आ रही है। अगर वर्तमान समय में हम किसी प्राचीन सभ्यता से लेकर आधुनिक समृद्ध राष्ट्र का उदाहरण देखें तो पाएंगे कि शक्ति की उपासना कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में उपस्थित है। तंत्र-मंत्र भी शक्ति साधना के ही रूप हैं। वैदिक काल में तंत्र-मंत्र साधना से प्राप्त चमत्कारी सिद्धियां तथा उनके रोमांचकारी वर्णन पुराणों में उपलब्ध हैं।

तांत्रिक विद्या कैसे सीखें

भारतवर्ष में अनेक प्रकार की तंत्र साधना प्रचलित है; जैसे-वाममार्गी साधना, श्मशान साधना, कपालिक साधना, मारण साधना, सम्मोहन साधना, देव साधना, अघोरी साधना, भैरव साधना, इष्ट साधना, वशीकरण साधना तथा आकर्षण साधना आदि। इन साधनाओं के माध्यम से कुछ निश्चित पदार्थो पर निश्चित क्रियाएं संपन्न की जाती हैं। इन क्रियाओं द्वारा वातावरण में उपलब्ध सूक्ष्म अणुओं में एक प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। साधनाओं में मंत्रों का प्रयोग भी किया जाता है। मंत्रों के उच्चारण से शरीर में उपस्थित तत्व प्रतिक्रिया करते हैं। जब प्रतिक्रियाशील तत्वों का संपर्क वातावरण के अणुओं से होता है तो इन बाहरी सूक्ष्म अणुओं में एक शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। इस प्रकार लगातार साधना द्वारा एक प्रचंड ऊर्जा शक्ति का सृजन होता है।

तंत्र साधना के लिए मंत्र जप का विधान है। जप वह है जो पापों का नाश करके संसार चक्र से छुटकारा दिलाता है। मुख्य रूप से जप तीन प्रकार के होते हैं-पहला मानसिक, दूसरा वाचिक तथा तीसरा कायिक। इनके विषय में हम प्रथम अध्याय में बता चुके हैं। ‘ नारद पुराण ‘ में कहा गया है कि समस्त यज्ञ वाचिक जप की तुलना में 1 वें भाग के बराबर भी नहीं हैं। वाचिक जप से सौ गुना कायिक जप और सहस्र गुना मानसिक जप का फल होता है। परंतु एक अन्य जप भी होता है जिसे ‘ अजपा जप ‘ कहा जाता है। अजपा जप की महिमा अत्यधिक है। निष्ठापूर्वक अजपा जप करने से सिद्धि प्राप्ति में संशय नहीं होता। इसी कारण यह सभी प्रकार के जपों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

तंत्र साधना में सफलता या असफलता साधक के कर्मों अथवा प्रारब्ध पर निर्भर करती है। अतएव कर्म करने से पहले विचार करना चाहिए। कर्मों पर आपका सब कुछ निर्भर है अत: सत्य कर्म करते हुए और पाप कर्मो, नीच कर्मों एवं दुष्ट कर्मों से बचते हुए अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार जब एक शब्द को बार-बार दोहराया जाता है तब हमारा मन उस पर केंद्रित हो जाता है और उस शब्द से उसी प्रकार का विचार उत्पन्न होने लगता है। विचार के सघन होने पर उसी प्रकार का प्रभाव हमारे तन-मन पर पड़ता है जिससे धीरे- धीरे बाहरी वातावरण परिवर्तित हो जाता है। इसका प्रसिद्ध उदाहरण फ्रांस का मनोवैज्ञानिक इमालिकुए था। उसने हजारों मरीजों को अपने सकारात्मक सुझावों से पूर्णतया ठीक किया। वह अपने सभी रोगियों से कहता था कि वे उसके द्वारा दिए गए सुझावों को मंत्रों की तरह बार-बार दोहराते रहें। अगर आप भी पूरे विश्वास से कोई मंत्र बार-बार दोहराते रहें तो केवल एक सप्ताह में अपने व्यक्तित्व में नया सुधार अनुभव कर सकते हैं।

मनोविज्ञान के अनुसार मंत्रों का प्रभाव सबसे अधिक उस समय पड़ता है जब आप सोने वाले होते हैं या निद्रा से जाग्रत अवस्था में आ रहे होते हैं। प्रयोग के लिए आप भी इन दोनों अवस्थाओं में किसी मंत्र को दोहराएं और दिन में भी जब आपको समय मिले, दोहराते रहें। जिस मंत्र को हम बार-बार पूरी भावना के साथ दोहराते हैं, वह हमारे उपचेतन मन से होता हुआ अचेतन मन में चला जाता है। अचेतन मन उस परम चेतना से जुड़ा हुआ है जो पूरे ब्रह्मांड को नियंत्रित करती है। परम चेतना तक पहुंचते ही वह मंत्र साकार हो जाता है।

तंत्र विज्ञान ने जितने भी मनोकामना पूर्ति के मंत्रों का आविष्कार किया है, उनके फलीभूत होने का यही रहस्य है। परंतु वे मंत्र शीघ्र प्रभाव डालते हैं जो पूरी मानव जाति के लिए लाभप्रद होते हैं। दूसरों को हानि पहुंचाने या उनको मारने के लिए किए जाने वाले मंत्र जप तथा तांत्रिक विधियां अंत में साधना करने वाले का ही सर्वनाश कर देती हैं। इस प्रकार मंत्रों का जप सदैव लाभप्रद होता है।

वैज्ञानिक सोच और तंत्र एक-दूसरे के विरोधी नहीं अपितु पूरक हैं। विज्ञान ने जहां परंपरागत अंधविश्वासों को दूर किया है, वहीं तंत्र ने विज्ञान एवं तकनीकी के कारण उपलब्ध भोग-सामग्रियों के प्रति उत्पन्न इच्छाओं पर नियंत्रण का पाठ पढ़ाया है। वैज्ञानिक सोच व्यक्ति को प्रयोगधर्मी बनाती है और तंत्र के प्रति आस्था तथा तनाव की विभिन्न अवस्थाओं में विश्राम पहुंचाती है। विज्ञान के कारण ही शारीरिक रोगों के निवारण हेतु चिकित्सा केंद्र सुलभ हुए हैं जबकि तंत्र शास्त्र से आत्मिक और मानसिक रोगों की सहज-सस्ती चिकित्सा होती है।

तंत्र और विज्ञान के कार्यों में भेद हैं। विज्ञान जीवन-मूल्यों की बात नहीं करता लेकिन तंत्र केवल जीवन-मूल्यों को महत्व देता है। नैतिकता, ईमानदारी, प्रामाणिकता, सहनशीलता, स्वावलंबन, स्वदोष दर्शन तथा आत्म-परिष्कार साधना आदि मूल्य धर्माचरण से आगे बढ़ाते हैं। वैज्ञानिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करने वाला व्यक्ति भ्रष्टाचारी, बेईमान और दुराचारी भी हो सकता है। तंत्र में ‘ आत्मवत् सर्वभूतेषु ‘ का सिद्धांत कार्य करता है लेकिन वैज्ञानिक सुख-सुविधाओं का उपभोक्ता अत्यंत स्वार्थी भी हो सकता है। वैज्ञानिक सोच का अपना महत्व है किंतु वैज्ञानिक सोच वाले व्यक्ति बहुत कम मिलते हैं। अधिकतर लोग विज्ञान के द्वारा विकसित सुख-सुविधाओं का उपभोग करने की इच्छा रखते हैं।

विज्ञान जहां व्यक्ति को नश्वर सुखों के प्रति आकृष्ट कर रहा है, वहीं तंत्र स्थायी सुख एवं आनंद का मार्ग प्रशस्त करता है। विज्ञान एक स्वच्छंद जीवन की ओर प्रलोभित करता है जबकि तंत्र उस पर संयम की लगाम लगाता है। धर्म रहित विज्ञान विनाश का निमित्त हो सकता है। विज्ञान के विकास ने व्यक्ति के जीवन में इतना अधिक प्रवेश कर लिया है कि वह तंत्र और साधना के लिए भी समय नहीं निकाल पा रहा है। विज्ञान द्वारा दी गई सुविधाएं आश्चर्यकारी हैं किंतु इसके साथ ही संयम, नैतिकता, इच्छा नियंत्रण, दूसरों के प्रति प्रेम तथा पारस्परिक सहयोग भाव आदि का भी होना अनिवार्य है।

तांत्रिक कैसे बने

तंत्र के साथ भी बुद्धि का होना आवश्यक है। केवल रूढ़िवाद या कर्मकांड तंत्र नहीं हैं, उनके साथ आत्मिक शुद्धि के भावों का जुड़ना आवश्यक है। तंत्र बाहरी सुख-सुविधाओं और जीवन की नश्वरता का बोध कराता है तथा सुख एवं आनंद प्राप्त करने की ओर अग्रसर करता है। इस दृष्टि से ‘ तंत्र ‘ विज्ञान से बढ्‌कर है। विज्ञान के प्रयोग मूर्त पदार्थों तक सीमित हैं जबकि तंत्र का विषय आत्मा है।

तंत्र आत्मा का स्वभाव भी है। तंत्र के दो रूप हैं-एक, सीधा आत्मा के साथ जुड़ा हुआ है जिसका कार्य आत्म-शुद्धि और पाप क्षय है। तंत्र का दूसरा रूप व्यावहारिक जगत से जुड़ा हुआ है। यह देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित भी हो सकता है। इसे ही धारण किया जाता है। विभिन्न युगों में तंत्र का रूप कैसा भी रहा हो, उसमें विकृतियां भी आती रही हों किंतु उसने मानव जाति का बहुत उपकार किया है। यदि भारत में तंत्र के प्रति आस्था न हो तो मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों की संख्या पचास गुनी बढ़ सकती है। कष्ट, वियोग, हानि एवं पीड़ा आदि के समय व्यक्ति सोचता है कि यह मेरे पूर्व कर्मों का फल है। ऐसा सोचकर ही वह उनको सहन करने की शक्ति विकसित कर लेता है। इसी प्रकार साधना-उपासना में आस्था रखने वाला व्यक्ति उसे ईश्वर की देन समझकर सहन करता है। इस तरह मनुष्य की आस्था ने उसे कठिन परिस्थितियों में भी मानसिक बल प्रदान किया है।

हमारे संतों एवं प्रवचनकर्ताओं ने कहा है ईश्वर को केवल गहन विश्राम में प्राप्त किया जा सकता है, कर्म द्वारा नहीं। तुम्हारे सभी प्रयास तुमको शांत करने में सहयोग करते हैं। जब तुम शांति का आनंद लेने के लिए नहीं रुकते तब अधिक आगे बढ़ोगे अन्यथा लालसाएं उत्पन्न हो सकती हैं। यदि एक बार मन में लालसाएं उत्पन्न हो गईं तो तुम्हारी प्रगति का मार्ग रुक सकता है। लालसाएं मन में एक प्रकार का असंतोष और अशांति का भाव भर देती हैं जो साधना पथ को बाधित करके तुम्हें असमंजस की स्थिति में डाल देती हैं। आनंद का सुख भोगने की चेष्टा में तुम ‘ मैं हूं ‘ की अवस्था से ‘ मैं कुछ हूं ‘ की अवस्था में नीचे उतर आते हो। ‘ मैं शांतिपूर्ण हूं ,, ‘ मैं आनंदपूर्ण हूं ‘ और इसके पश्चात आता है-‘ मैं दुखी हूं। ‘ मात्र ‘ मैं हूं ‘ कहने के लिए साहस की आवश्यकता है। ‘ मैं हूं ‘ अनासक्ति है।

प्रेम निकृष्ट वस्तु से भी हो सकता है और उत्तम वस्तु से भी संभव है। तंत्र आपको अनासक्ति, मोक्ष तथा पुण्य का मार्ग दिखाता है। इस संदर्भ में एक कथा मिलती है कीचड़ में लोटता और गंदगी चाटता हुआ शूकर देखकर महर्षि नारद को बड़ी दया आई। वे उसकी मुक्ति की बात सोचने लगे। नारद जी ने सोचा कि यह शूकर कितना असहाय है जो इस गंदगी में दिन काट रहा है, मुझे इसके लिए कुछ करना चाहिए ताकि यह भी सुखी जीवन बिता सके। यह सब सोचकर महर्षि नारद शूकर के पास पहुंचे और स्नेहपूर्वक बोले-इस घिनौनी रीति से जीना ठीक नहीं है। चलो, तुम्हें स्वर्ग पहुंचा देते हैं। शूकर तैयार हो गया और उनके पीछे-पीछे चलने लगा।

मार्ग में शूकर को स्वर्ग के विषय में अधिक जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। अत: वह पूछ बैठा-वहां खाने और भोगने की क्या-क्या वस्तुएं हैं?
नारद जी उसे स्वर्ग के विषय में बताने लगे। शूकर कुतूहल पूर्वक नारद की बातें सुनता रहा। जब बात पूरी हो चुकी तो उसने पूछा- वहां खाने के लिए गंदगी, लोटने के लिए कीचड़ और सहचर्या के लिए शूकरों का संप्रदाय है या नहीं? महर्षि नारद ने असमंजस में पड़ते हुए कहा-मूर्ख! इन वस्तुओं की वहां क्या आवश्यकता है? वहां तो पवित्र वातावरण है। वहां का जैसा मनोरम वातावरण है, वैसे ही अमूल्य खाद्य पदार्थ भी उपलब्ध हैं। ऐसा मनोरम वातावरण और भोजन पाकर सभी लोग धन्य हो जाते हैं।

शूकर को नारद के उत्तर से कोई संतुष्टि नहीं मिली। उसने सोचा कि महर्षि कैसी बातें करते हैं। भला, मैले की टोकरी, गंधयुक्त कीचड़ और शूकर संप्रदाय के अभाव में कैसे सुख मिल सकता है? अत: यह सोचकर शूकर ने आगे चलने से मना कर दिया और वह वापस लौट पड़ा।

अगर जीव को अंत स्थिति तक पहुंचना है तो पहले उसका मानसिक स्तर ऊंचा उठाना होगा। उसके बिना उसे उत्तम स्थिति का लाभ मिलना संभव नहीं होता। यह सब मंत्र साधना, संयमित जीवन और परोपकार से संभव है। इन कार्यों के समावेश का नाम ही तंत्र है। शाश्वत सुख और शांति की प्राप्ति ही मानव का लक्ष्य है। दुखों से दूर होने का अभिप्राय है सदा साधना में मग्न रहना। अधिकांश लोग यह मानते हैं कि भौतिकता से ही सुख मिलता है और दुखों का कारण भौतिक पदार्थों का अभाव है लेकिन इन पदार्थों से मिलने वाला सुख क्षणिक होता है। अंत में इनसे अशांति मिलती है। यदि आप शाश्वत सुख-शांति और आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करना चाहते हैं तो नित्य साधना की आदत डालें। सामाजिक सौहार्द्र और संतोष आदि वृत्तियां ही सतत सुखों के द्वार हैं। अगर इष्टदेव के प्रति समर्पण भाव हो तो परम सुखों के मार्ग स्वत: प्रशस्त होते जाते हैं।

तांत्रिक विद्या मंत्र – तांत्रिक मंत्र साधना

अस्तु प्रभु की साधना-उपासना ही तंत्र है। तंत्र न केवल प्रभु की वरन उनके अनुचरों एवं सहचरों की साधना करने का भी आदेश देता है। तंत्र प्रभु के मार्ग में उनकी साधना और उनसे प्राप्त होने वाले फलों को कर्म कहता है। वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण और मारण के प्रयोग कर्मों में गिने जाते हैं। वैसे स्तंभन को भी कर्म ही माना जाता है परंतु यह वर्गीकरण उद्देश्य भेद के आधार पर होता है। सात्विक लक्ष्य की पूर्ति के लिए किया गया कर्म निंदित नहीं होता फिर भी सोद्देश्य कर्म को छोड्‌कर शेष सब मानवता की दृष्टि से वर्जित माने गए हैं।

गुरु द्रोणाचार्य ने कौरवों और पांडवों को शिक्षा देने के पश्चात उनकी परीक्षा लेनी चाही। वे बोले-तुम लोग मुझे गुरु दक्षिणा दोगे? कौरवों और पांडवों ने ‘ हां ‘ में सिर हिला दिया।

द्रोणाचार्य ने कहा-मैं तुम्हें एक पाठ देता हूं। पाठ है – सत्य बोलना धर्म है और असत्य बोलना पाप है। इसे तुम सभी कल सुनाओगे।
दूसरे दिन सभी कौरवों और पांडवों ने तो पाठ सुना दिया लेकिन धर्मराज युधिष्ठिर ने समय मांगा। वे छह माह तक समय मांगते रहे। इसके बाद उन्होंने कहा- अब मैं पाठ सुना सकता हूं गुरुवर! द्रोणाचार्य की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। उन्होंने युधिष्ठिर की पीठ थपथपाई और बोले-तू ही एक ऐसा शिष्य है जिसने विद्या के मर्म को समझा है।

इस कथा का आशय यह है कि विद्या को ग्रहण करना ही काफी नहीं है अपितु उसे जीवन में उतारना भी आवश्यक है। पुस्तकीय ज्ञान सरलता से प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उसे अपने आचरण में लाना ही सच्ची सफलता है। जो साधक तंत्र के आकर्षण में इस क्षेत्र में आना चाहते हैं, वे सबसे पहले किसी योग्य तांत्रिक गुरु की खोज करें। उनसे तंत्र का गुप्त ज्ञान लें। श्रद्धा, विश्वास और एकाग्रता का अपने भीतर निर्माण करें। इसके पश्चात तंत्र और साधना के क्षेत्र में उतरें। इस संसार में जीवन का मूल्य और महत्व ही क्या, अगर किसी विशिष्ट क्षेत्र में दक्षता प्राप्त न की जाए। वह जीवन पशुओं की तरह है जो भूख लगने पर भोजन कर लेते हैं और नींद आने पर सो जाते हैं। यह जीवन नहीं है, यह जीवन की श्रेष्ठता और पूर्णता नहीं है-यह तो कायरता है, जीवन से पलायन है तथा टुकड़ों-टुकड़ों में जीवन व्यतीत करने का उपक्रम है।

तंत्र साधना का मूल उद्देश्य स्वयं में निहित आनंद की खोज है। निरंतर अभ्यास एवं साधना साधक के मूलभूत व्यक्तित्व तथा चेतना को अलौकिक आनंद से परिपूर्ण कर देती है। तंत्र के अनुसार सप्तचक्र आनंद के सात मार्ग हैं जो प्रत्येक व्यक्ति में उपस्थित हैं। प्रकृति क्या है, प्रकृति के प्रकोप क्यों उभरते हैं और कुछ ऐसे शाश्वत प्रश्न हैं जिनका मानव से गहरा संबंध है। आधुनिक पर्यावरणविदों के पास इनका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है परंतु प्राचीन ऋषि मार्कण्डेय के पास इन समस्त प्रश्नों का उत्तर था। ‘ दुर्गासप्तशती ‘ नामक ग्रंथ में इन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए विश्वार्तिहारिणी अर्थात विश्व की पीड़ा को दूर करने वाली और दुर्गातिनाशिनी अर्थात आपदाओं से रक्षा करने वाली नवदुर्गा का आह्वान हुआ है। तंत्र में श्रद्धा को ही ज्ञान अथवा ईश्वर की प्राप्ति का आधार माना गया है। कभी-कभी अंधविश्वास में भी श्रद्धा का अनुभव होता है किंतु उसमें कष्ट या पश्चाताप जन्म लेता है। यदि यह कष्ट गहराने लगे तो इस मार्ग को छोड़ देना चाहिए। जो कहा जा रहा है, उसे मान लेना श्रद्धा नहीं है। सामान्यत: जीवन में श्रद्धा को विश्वास के रूप में देखा जा सकता है। जिस पर विश्वास हो जाता है, उसके दोष भी गुण दिखाई देने लगते हैं। विशेषताएं एवं गुण बढ़-चढ़कर प्रतीत होने लगते हैं। यह विश्वास उच्चतर जीवन में श्रद्धा के रूप में विकसित होता है। वास्तव में तंत्र की सम्मत विद्याएं और विधाएं जन कल्याण के लिए निरूपित की गई हैं। यह प्रमुख रूप से छह प्रकार के कर्मों में विस्तारित हैं-मारण, आकर्षण, वशीकरण, स्तंभन, उच्चाटन और शांति। भिन्न-भिन्न तांत्रिक कर्मों को भिन्न-भिन्न तांत्रिक चेष्टाओं से पूर्ण किया जाता है। भगवान शिव के द्वारा जितने भी तंत्र-मंत्र प्रकाश में आए हैं, उनके मूल में कल्याण की भावना छिपी है। तंत्र शक्ति का कोई पारावार नहीं है। एक बार प्राप्त हो जाने पर लंबे समय तक उसका प्रभाव रहता है। शक्ति कोई भी हो, नियम के अनुसार उसकी सार-संभाल कर पाना बहुत कठिन है। आज प्रत्येक कर्म, प्रत्येक चेष्टा और प्रत्येक साधना के मूल में साधक का स्वार्थ होता है। स्वार्थ कभी भी कल्याणकारी नहीं होता। फलस्वरूप तंत्र-मंत्र जैसी कल्याणकारी विद्याओं में सिद्धिप्राप्त साधक भी अपने स्वार्थवश पथभ्रष्ट हो जाता है और कल्याणकारी विद्याओं को विनाशकारी बना देता है।

तंत्र शास्त्र में साधना का अपना महत्व है और उस महत्व की प्राप्ति के लिए साधना की पद्धति होती है। तंत्र शास्त्र में जो मंत्र हैं, वही शक्ति है। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तंत्र साधनाओं का महत्व पूर्णतया नष्ट होता जा रहा है। अधिकतर साधनाएं निष्फल होती हैं। यदि कारण खोजें तो अनेक मिल जाते हैं। सबसे बड़ा कारण है-शीघ्र उद्देश्य प्राप्ति की चाह और उससे भी बड़ा कारण है योग्य मार्गदर्शक का न मिलना। तंत्र साधना में मार्ग निर्देशक मार्गदर्शन तो करता है परंतु सफल नहीं बनाता। मार्ग निर्देशक कितने भी विद्वान क्यों न हों, जब तक साधक स्वयं परिश्रम नहीं करता तब तक उसे सफलता नहीं प्राप्त हो सकती।




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